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हिंदी कहानियां - भाग 118

एक दिन बादशाह अकबर ने बीरबल से पूछा - तुम्हारे धर्मग्रंथों में यह लिखा है कि हाथी की गुहार सुनकर श्री कृष्ण जी पैदल दौड़े थे। न तो उन्होंने किसी सेबक को ही साथ लिया न ही किसी सवारी पर ही गये। इसकी वजह समझ में नहीं आती। क्या उनके सेवक नहीं थे ?


बीरबल बोले - इसका उत्तर आपको समय आने पर ही दिया जा सकेगा जहाँपनाह।

कुछ दिन बीतने पर एक दिन बीरबल ने एक नौकर को जो शहजादे को इधर-उधर टहलाता था, एक मोम की बनी मूर्ति दी जिसकी शक्ल बादशाह के पोते से मिलती थी।

मूर्ति अच्छी तरह गहने-कपड़ों से सुसज्जित होने के कारण दूर से दिखने में बिल्कुल शहजादा मालूम होती थी।

बीरबल ने नौकर को अच्छी तरह समझा दिया कि उसे क्या करना है।

जिस तरह तुम रोज बादशाह के पोते को लेकर उनके सम्मुख जाते हो ठीक उसी तरह आज मूर्ति को लेकर जाना और बाग में जलाशय के पास फिसल जाने के बहाना कर गिर पड़ना।

तुम सावधानी से जमीन पर गिरना लेकिन मूर्ति पानी में अवश्य गिरनी चाहिए। यदि तुम्हें इस कार्य में सफलता मिली तो तुम्हें इनाम दिया जायेगा।

एक दिन बादशाह बाग में बैठे थे। वहीं एक जलाशय था।

नौकर शहजादे को खिला रहा था कि अचानक उसका पाँव फिसला और उसके हाथ से शहजादा छूटकर पानी में जा गिरा।

बादशाह यह देखकर बुरी तरह घबरा गये और जलाशय की तरफ लपके।

कुछ देर बाद मोम की मूर्ति को लिए पानी से बाहर निकले।

बीरबल भी उस वक्त वहां उपस्थित थे वे बोले - जहाँपनाह, आपके पास सेवक और कनीजों की फौज है फिर आप स्वयं और वह भी नंगे पावं अपने पोते के लिए क्यों दौड़ पड़े ?

आखिर सेवक-सेविकाएं किस काम आयेंगे ?

बादशाह बीरबल का चेहरा देखने लगे - अब भी आपकी आँखे नहीं खुलीं तो सुनिए - जैसे आपको अपना पोता प्यारा है उसी तरह श्री कृष्णजी को अपने भक्त प्यारे हैं। इसलिए उनकी पुकार पर वे दौड़े चले गये थे। यह सुनकर बादशाह को अपनी भूल का एहसास हुआ।

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